Wednesday, October 7, 2009

श्री हनुमान चालीसा



श्री हनुमान चालीसा
श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुर सुधारि ।
बरनउं रघुबर विमल जसु, जो दायकु पल चारि ।।
बुद्घिहीन तनु जानिकै, सुमिरौं पवन-कुमार ।
बल बुद्घि विघा देहु मोहि, हरहु कलेश विकार ।।
जय हनुमान ज्ञान गुण सागर । जय कपीस तिहुं लोग उजागर ।।
रामदूत अतुलित बल धामा । अंजनि पुत्र पवनसुत नामा ।।
महावीर विक्रम बजरंगी । कुमति निवार सुमति के संगी ।।
कंचन बरन विराज सुवेसा । कानन कुण्डल कुंचित केसा ।।
हाथ वज्र औ ध्वजा विराजै । कांधे मूंज जनेऊ साजै ।।
शंकर सुवन केसरी नन्दन । तेज प्रताप महा जगवन्दन ।।
विघावान गुणी अति चातुर । राम काज करिबे को आतुर ।।
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया । राम लखन सीता मन बसिया ।।
सूक्ष्म रुप धरि सियहिं दिखावा । विकट रुप धरि लंक जरावा ।।
भीम रुप धरि असुर संहारे । रामचन्द्रजी के काज संवारे ।।
लाय संजीवन लखन जियाये । श्री रघुवीर हरषि उर लाये ।।
रघुपति कीन्हीं बहुत बड़ाई । तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई ।।
सहस बदन तुम्हरो यश गावै । अस कहि श्री पति कंठ लगावै ।।
सनकादिक ब्रहादि मुनीसा । नारद सारद सहित अहीसा ।।
यह कुबेर दिकपाल जहां ते । कवि कोबिद कहि सके कहां ते ।।
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा । राम मिलाय राजपद दीन्हा ।।
तुम्हरो मन्त्र विभीषन माना । लंकेश्वर भये सब जग जाना ।।
जुग सहस्त्र योजन पर भानू । लाल्यो ताहि मधुर फल जानू ।।
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माही । जलधि लांघि गए अचरज नाहीं ।।
दुर्गम काज जगत के जेते । सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ।।
राम दुआरे तुम रखवारे । होत न आज्ञा बिनु पैसारे ।।
सब सुख लहै तुम्हारी सरना । तुम रक्षक काहू को डरना ।।
आपन तेज सम्हारो आपै । तीनों लोक हांक ते कांपै ।।
भूत पिशाच निकट नहिं आवै । महाबीर जब नाम सुनावै ।।
नासै रोग हरै सब पीरा । जपत निरन्तर हनुमत बीरा ।।
संकट ते हनुमान छुड़ावै । मन क्रम वचन ध्यान जो लावै ।।
सब पर राम तपस्वी राजा । तिनके काज सकल तुम साजा ।।
और मनोरथ जो कोई लावै । सोइ अमित जीवन फल पावै ।।
चारों जुग परताप तुम्हारा । है परसिद्घ जगत उजियारा ।।
साधु सन्त के तुम रखवारे । असुर निकन्दन राम दुलारे ।।
अष्ट सिद्घि नवनिधि के दाता । अस वर दीन जानकी माता ।।
राम रसायन तुम्हरे पासा । सदा रहो रघुपति के दासा ।।
तुम्हरे भजन राम को पावै । जनम जनम के दुख बिसरावै ।।
अन्तकाल रघुबर पुर जाई । जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई ।।
और देवता चित्त न धरई । हनुमत सेई सर्व सुख करई ।।
संकट कटै मिटै सब पीरा । जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ।।
जय जय जय हनुमान गुसांई । कृपा करहु गुरुदेव की नाई ।।
जो शत बार पाठ कर सोई । छूटहिं बंदि महासुख होई ।।
जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा । होय सिद्घि साखी गौरीसा ।।
तुलसीदास सदा हरि चेरा । कीजै नाथ हृदय महं डेरा ।।
।। दोहा ।।
पवनतनय संकट हरन, मंगल मूरति रुप ।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप ।।


संकटमोचन हनुमानाष्टक
।। मत्तगयन्द छन्द ।।
बाल समय रवि भक्ष लियो तब, तीनहुं लोक भयो अँधियारो ।
ताहि सों त्रास भयो जग को, यह संकट काहु सों जात न टारो ।।
देवन आनि करी विनती तब, छांड़ि दियो रवि कष्ट निहारो ।
को नहिं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो ।। 1 ।।
बालि की त्रास कपीस बसै गिरि, जात महाप्रभु पंथ निहारो ।।
चौंकि महामुनि शाप दियो तब, चाहिये कौन विचार विचारो ।
कै द्घिज रुप लिवाय महाप्रभु, सो तुम दास के शोक निवारो ।। 2 ।।
अंगद के संग लेन गए सिय, खोज कपीस यह बैन उचारो ।
जीवत न बचिहों हम सों जु, बिना सुधि लाए इहां पगु धारो ।
हेरि थके तट सिंधु सबै तब, लाय सिया सुधि प्राण उबारो ।। 3 ।।
रावण त्रास दई सिय को तब, राक्षसि सों कहि सोक निवारो ।
ताहि समय हनुमान महाप्रभु, जाय महा रजनीचर मारो ।
चाहत सीय अशोक सों आगि सु, दे प्रभु मुद्रिका सोक निवारो ।। 4 ।।
बाण लग्यो उर लक्ष्मण के तब, प्राण तजे सुत रावण मारो ।
लै गृह वैघ सुषेन समेत, तबै गिरि द्रोण सु-बीर उपारो ।
आनि संजीवनी हाथ दई तब, लक्ष्मण के तुम प्राण उबारो ।। 5 ।।
रावण युद्घ अजान कियो तब, नाग की फांस सबै सिरडारो ।
श्री रघुनाथ समेत सबै दल, मोह भयो यह संकट भारो ।
आनि खगेस तबै हनुमान जु, बन्धन काटि सुत्रास निवारो ।। 6 ।।
बन्धु समेत जबै अहिरावण, लै रघुनाथ पाताल सिधारो ।
देवहिं पूजि भली विधि सों बलि, देउ सबै मिलि मंत्र विचारो ।
जाय सहाय भयो तबही, अहिरावण सैन्य समैत संहारो ।। 7 ।।
काज किये बड़ देवन के तुम, वीर महाप्रभु देखि विचारो ।
कौन सो संकट मोर गरीब को, जो तुमसो नहिं जात है टारो ।
बेगि हरौ हनुमान महाप्रभु, जो कछु संकट होय हमारो ।। 8 ।।
।। दोहा ।।
लाल देह लाली लसे, अरु धरि लाल लंगूर ।
बज्र देह दानव दलन, जय जय जय कपि सूर ।।
अथ बजरंग बाण
।। दोहा ।।
निश्चय प्रेम प्रतीत ते, विनय करें सनमान ।
तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्घ करैं हनुमान ।।
जय हनुमन्त सन्त हितकारी । सुन लीजै प्रभु अरज हमारी ।।
जन के काज विलम्ब न कीजै । आतुर दौरि महा सुख दीजै ।।
जैसे कूदि सुन्धु वहि पारा । सुरसा बद पैठि विस्तारा ।।
आगे जाई लंकिनी रोका । मारेहु लात गई सुर लोका ।।
जाय विभीषण को सुख दीन्हा । सीता निरखि परम पद लीन्हा ।।
बाग उजारी सिन्धु महं बोरा । अति आतुर जमकातर तोरा ।।
अक्षय कुमार मारि संहारा । लूम लपेट लंक को जारा ।।
लाह समान लंक जरि गई । जय जय धुनि सुरपुर मे भई ।।
अब विलम्ब केहि कारण स्वामी । कृपा करहु उन अन्तर्यामी ।।
जय जय लक्ष्मण प्राण के दाता । आतुर होय दुख हरहु निपाता ।।
जै गिरिधर जै जै सुखसागर । सुर समूह समरथ भटनागर ।।
जय हनु हनु हनुमंत हठीले । बैरिहि मारु बज्र की कीले ।।
गदा बज्र लै बैरिहिं मारो । महाराज प्रभु दास उबारो ।।
ऊँ कार हुंकार महाप्रभु धावो । बज्र गदा हनु विलम्ब न लावो ।।
ऊँ हीं हीं हनुमन्त कपीसा । ऊँ हुं हुं हनु अरि उर शीशा ।।
सत्य होहु हरि शपथ पाय के । रामदूत धरु मारु जाय के ।।
जय जय जय हनुमन्त अगाधा । दुःख पावत जन केहि अपराधा ।।
पूजा जप तप नेम अचारा । नहिं जानत हौं दास तुम्हारा ।।
वन उपवन, मग गिरि गृह माहीं । तुम्हरे बल हम डरपत नाहीं ।।
पांय परों कर जोरि मनावौं । यहि अवसर अब केहि गोहरावौं ।।
जय अंजनि कुमार बलवन्ता । शंकर सुवन वीर हनुमन्ता ।।
बदन कराल काल कुल घालक । राम सहाय सदा प्रति पालक ।।
भूत प्रेत पिशाच निशाचर । अग्नि बेताल काल मारी मर ।।
इन्हें मारु तोहिं शपथ राम की । राखु नाथ मरजाद नाम की ।।
जनकसुता हरि दास कहावौ । ताकी शपथ विलम्ब न लावो ।।
जय जय जय धुनि होत अकाशा । सुमिरत होत दुसह दुःख नाशा ।।
चरण शरण कर जोरि मनावौ । यहि अवसर अब केहि गौहरावौं ।।
उठु उठु उठु चलु राम दुहाई । पांय परों कर जोरि मनाई ।।
ऊं चं चं चं चपल चलंता । ऊँ हनु हनु हनु हनु हनुमन्ता ।।
ऊँ हं हं हांक देत कपि चंचल । ऊँ सं सं सहमि पराने खल दल ।।
अपने जन को तुरत उबारो । सुमिरत होय आनन्द हमारो ।।
यह बजरंग बाण जेहि मारै । ताहि कहो फिर कौन उबारै ।।
पाठ करै बजरंग बाण की । हनुमत रक्षा करैं प्राम की ।।
यह बजरंग बाण जो जापै । ताते भूत प्रेत सब कांपै ।।
धूप देय अरु जपै हमेशा । ताके तन नहिं रहै कलेशा ।।
।। दोहा ।।
प्रेम प्रतीतहि कपि भजै, सदा धरैं उर ध्यान ।
तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्घ करैं हनुमान ।।
आरती बजरंगबली की
आरती कीजै हनुमान लला की । दुष्ट दलन रघुनाथ कला की ।।
जाके बल से गिरिवर कांपै । रोग-दोष जाके निकट न झांपै ।।
अंजनि पुत्र महा बलदाई । संतन के प्रभु सदा सहाई ।।
दे बीरा रघुनाथ पठाए । लंका जारि सिया सुधि लाये ।।
लंका सो कोट समुद्र सी खाई । जात पवनसुत बार न लाई ।।
लंका जारि असुर सब मारे । सियाराम जी के काज संवारे ।।
लक्ष्मण मूर्च्छित पड़े सकारे । लाय संजीवन प्राण उबारे ।।
पैठि पताल तोरि जमकारे । अहिरावण की भुजा उखारे ।।
बाईं भुजा असुर संहारे । दाईं भुजा संत जन तारे ।।
सुर नर मुनि आरती उतारें । जय जय जय हनुमान उचारें ।।
कंचन थार कपूर लौ छाई । आरति करत अंजना माई ।।
जो हनुमान जी की आरती गावे । बसि बैकुण्ठ परमपद पावे ।।
लंक विध्वंस किए रघुराई । तुलसिदास प्रभु कीरति गाई ।।

Monday, October 5, 2009

Nagaur District Map



The other places of interest in Nagaur district are:

Tarkeen Dargah
Jain Temple
Saiji ka Tanka
Bansiwala Temple
Nath Ji ki Chhatri
Khinvsar Fort
Meera Bai Temple
Bhanwal Matta Temple
Kuchaman Fort
Makarana
Jain Vishva Bharti Institute
Phalvardhika
Maroth
Harsolav
Mundiyad
Kurki
Gogelav
Peepasar


How to reach Nagaur district:

One can travel by air, rail or bus to Nagaur district. The airport in Jodhpur is the closet airport to this district. Jodhpur is about 135 kilometers from Nagaur district. The International airport located close to Nagaur district is the Jaipur airport (293 kilometers).

Sunday, October 4, 2009

नागौर दुर्ग `````दर्शनीय पर्यटन स्‍थल



दर्शनीय पर्यटन स्‍थल
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नागौर दुर्ग


नागौर दुर्ग-सोमेश्वर चौहान के सामन्त केमास ने विक्रम संवत् 1211 में नागौर दुर्ग का निर्माण करवाया था। इसकी प्राचीर में 28 विशाल बुर्जें बनी हुई हैं। यह किला दोहरे परकोटे में बहुत ही सुदृढ बना हुआ हैं। यह किला वीरवर राव अमरसिंह राठौड की शौर्य गाथाओं के कारण इतिहास में विशिष्ट स्थान एवं महत्ता रखता हैं।

रंगीले राजस्थान का नागौर का किला




नागौर का किला








रंग-रंगीला राजस्थान अपनी नायाब खूबसूरती व रजवाड़ी शान के प्रतीक किलों और महलों के कारण सदा से ही पर्यटकों के आकर्षण का प्रमुख केंद्र रहा है। आज हम राजस्थान के मध्य भाग में बसे एक ऐसे ही पर्यटनस्थल 'नागौर' की सैर करते हैं तथा यह जानते हैं कि नागौर क्यों है पर्यटकों के लिए खास।

जोधपुर से लगभग 137 किमी उत्तर में स्थित है 'नागौर'। नागौर का किला दूर-दूर तक फैली रेत के बीच एक प्रकाशस्तंभ की तरह दिखाई देता है। 4थी शताब्दी में अस्तित्व में आया यह किला राजस्थान के अन्य किलों की तरह ही ऊँची पहाड़ी की चोटी पर स्थित है।

नागौर की सुंदरता यहाँ के पुराने किलों व छतरियों में है, जिसका उत्कृष्ट उदाहरण हमें नागौर में प्रवेश करते ही देखने को मिलता है। इस नगरी में प्रवेश करने के लिए तीन मुख्य द्वार है, जिनके नाम देहली द्वार, त्रिपोलिया द्वार तथा नाकाश द्वार है। नागौर व उसके आसपास के पर्यटनस्थलों में प्रमुख नागौर का किला, तारकिन की दरगाह, वीर अमर सिंह राठौड़ की छतरी, मीरा बाई की जन्मस्थली मेड़ता, खींवसर किला, कुचामन किला आदि है।





किले के भीतर भी छोटे-बड़े सुंदर महल व छतरियाँ हैं, जो हमें राजस्थान के गौरवशाली इतिहास में खीच ले जाते हैं। किले के भीतर तीन सुंदर पैलेस हाडी रानी महल, शीश महल और बादल महल हैं, जो अपने सुंदर भित्ति चित्रों के कारण प्रसिद्ध हैं। इनके समीप ही एक मस्जिद है, जिसे मुगल शासक अकबर ने बनवाया था।

यहाँ पर सूफी संत मोइनुद्दीन चिश्ती की एक दरगाह भी है। इसी के साथ ही किले के भीतर राजपूताना शैली में बनी हुई सैनिकों की सुंदर छतरियाँ भी हैं।

नागौर का मुख्य आकर्षण यहाँ का 'पशु मेला' है, जो यहाँ प्रतिवर्ष वृहद स्तर पर आयोजित किया जाता है। इस मेले में होने वाली मुर्गों की लड़ाई, ऊँट की दौड़, कठपुतली का खेल, राजस्थानी नृत्य आदि भी पर्यटकों के लिए आकर्षण का प्रमुख केंद्र होते हैं। इस मेले में खासतौर पर ऊँट, भेड़, घोड़े, गाय आदि पशुओं का क्रय-विक्रय होता है। सूर्य के अस्त होने के साथ ही नागौर के इस पशु मेले में यहाँ के पारंपरिक लोकनृत्य की गूँज एक सुंदर समा बाँध देती है।

सदा से पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र रहा राजस्थान वाकई में अपने भीतर किलों व महलों के रूप में नायब खूबसूरती को समेटे हुए है। एक बार आप भी राजपूतों की इस धरती की सैर जरूर कीजिएगा।

नागौर है विभूतियों की भूमि :
मारवाड़ का नागौर एक ऐसा क्षेत्र है, जो कई ऐसी विभुतियों क‍ी जन्मस्थली है, जिन्होंने पूरी दुनिया में मारवाड़ की माटी का नाम रोशन किया। डिंगल और पिंगल भाषा में कई ग्रंथों की रचना करने वाले प्रसिद्ध कवि वृंद का जन्म नागौर के मेड़ता में हुआ था। मेड़ता कृष्ण भक्त मीराबाई की भी जन्मस्थली है। अकबर के नौ रत्नों में से अबुल फैज और अबुल फजल दोनों भाईयों का जन्म नागौर में ही हुआ था। यही नहीं अकबर के दरबारी बुद्धिमान बीरबल भी नागौर जिले के ही रहने वाले थें।

कैसे पहुँचे नागौर :
भारत की राजधानी नईदिल्ली व राजस्थान की राजधानी जयपुर से मेड़ता रोड़ के लिए कई बसे उपलब्ध है। मेड़ता रोड़ से नागौर की दूरी 82 किमी है, जिसे आप बस या टैक्सी से तय कर सकते हैं।

किस मौसम में जाएँ :
वैसे तो वर्षभर में कभी भी आप नागौर जा सकते हैं परंतु यहाँ जाने का अनुकूल समय फरवरी से मई तथा अगस्त से नवंबर माह के बीच का समय है।

Saturday, October 3, 2009

WHAT IS JAINISM ???


Jainism is an ancient religion of India. It is one of the oldestliving religions in the world.Jains realise that all souls are equal and thus do not subscribe to any notions of inequality between human beings on the basis of race, religion, caste or gender.Jains recognise 24 Tirthankaras or fordmakers who promulgate the eternal teachings of the Jinas (perfect beings who have conquered the senses and are beyond all desire).

Tirthankara Adinatha was the first Tirthankara of this era, andTirthankara Mahavira was the last.Each of the 24 Tirthankaras taught the path of liberation, giving the same message of non-violence, self control and self restraint.Anyone can be a Jain. There is no formal training required. No formal initiation. He / she who follows the teachings of the Jinas is a Jain.What does this entail? Conquering one's passions, controlling one's desire for sensual gratification and acceptance of responsibility for one's own thoughts, words and deeds.Jainism sees the soul and body as two distinct entities.Jainism knows that the soul is eternal, whereas the body is impermanent.Jainism believes that the soul, when it sheds all insentient matter, is of the nature of pure bliss.The two come together when the soul is encumbered by passions and hence attracts fine particles of insentient matter called karmas, which cause temporal bondage.

Jainism shows the process whereby the soul can shed this insentient matter, ridding itself of temporal bondage and attaining eternal bliss (which is its own true nature, merely obscured and impeded by the presence of karmas).Those who walk this path without any compromise, are known as ascetics. They are fully committed to the goal of liberation.Those who follow this path partially are known as laypersons. While they realise the importance of liberation and the flawed, impermanent and vexing nature of temporal pleasures, they are unable to commit themselves fully to the goal of liberation.

Jains worship the Tirthankaras as they are liberated beings who have shown us the path of liberation.Jains do not believe that worshiping the Tirthankaras or anyone else can gain them spiritual or worldly goals.Jains do not believe in an omnipotent being who runs the Earth according to his / her wishes. Jains believe in personalresponsibility and hold each living being responsible for its own acts of mind, speech and body.Jains worship the Tirthankaras in order to imbibe their spiritual qualities, chiefly their attribute of VITARAGA, or being supremely unattached.The quest of each mundane soul is to attain this supreme unattachment, which would lead to the dissociation of all karmas from the soul thus resulting in eternal bliss as only a soul free from all karmas may attain its intrinsic quality of eternal bliss.Jay Jinendra
णमो अरिहंताणं
णमो सिद्धाणं
णमो आयरियाणं
णमो उवज्झायाणं
एसो पंच णमोकारो
सव्व पाव प्पणासणो
मंगलाणं च सव्वेसिम
पढ्मम हवइ मंगलम



In the above Prakrit prayer, Jains salute the virtues of the Pancha Parmeshti, or five benevolents: The Arihants, Siddhas, Acharyas, Upadhyayas, and normal monks. They do not pray to a specific Tirthankar or monk by name. By saluting them, Jains believe they receive the inspiration from the five benevolent for the right path of true happiness and total freedom from the misery of life. Jain prayers do not ask for any favors or material benefits from the Tirthankaras or from sadhus and sadhvis. These prayers simply serve as a gesture of deep respect towards beings they believe are more spiritually advanced and to remind followers of the Jain religion of their ultimate goal of nirvana or moksha.
1.ARIHANTAS
The word Arihanta is made up of two words: 1) Ari, meaning enemies, and 2) hanta, meaning destroyer. Therefore, Arihanta means a destroyer of the enemies. These enemies are not people like you, me, or any animal, or plant, etc. These enemies are inner desires known as passions. These includes anger, ego, deception, and greed. These are the internal enemies within us. Until we control our passions, the real nature or the power of our soul will not be realized or manifested. When a person (soul) wins over these inner enemies he/she is called Arihanta. When that happens, the person has destroyed the four ghati karmas namely Jnanavarniya (knowledge blocking) Karma, Darshanavarniya (perception blocking) Karma, Mohniya (passion causing) Karma and Antaraya (obstacle causing) Karma. These karmas are called ghati karmas because they directly affect the true nature of the soul. Arihanta attains: 1) Kevaljnan, perfect knowledge due to the destruction of all Jnanavarniya Karmas, 2) Kevaldarshan, perfect perception due to the destruction of all Darshanavarniya karmas, 3) becomes passionless due to the destruction of all Mohniya Karmas, and 4) gains infinite power due to the destruction of all Antaraya Karmas. Complete knowledge and perception means they know and see everything everywhere that is happening now, that has happened in the past, and that will happen in the future. Arihantas are divided into two categories: Tirthankar and Ordinary. Tirthankaras are special Arihants because they revitalize the Jain Sangh (four-fold Jain Order) consisting of Sädhus, Sädhvis, Shrävaks (male householders), and Shrävikäs (female householders). During every half time cycle, twenty-four persons like us rise to the level of Tirthankar. The first Tirthankar of our time period was Lord Rushabhdev, and the twenty-fourth and last Tirthankar was Lord Mahävira, who lived from 599 B. C. to 527 B. C. A Tirthankar is also called a Jinä. Jina means conqueror of passions. At the time of nirvän (liberated from the worldly existence), Arihanta sheds off the remaining four aghati karmas namely 1) Nam (physical structure forming) Karma, 2) Gotra (status forming) Karma, 3) Vedniya (pain and pleasure causing) Karma and 4) Ayushya (life span determining) Karma. These four karmas do not affect the true nature of the soul; therefore, they are called Aghati karmas. After attaining salvation these Arihants are called Siddhas.
2. SHIDDHAS
Siddhas are the liberated souls. They are no longer among us because they have completely ended the cycle of birth and death. They have reached the ultimate highest state, salvation. They do not have any karmas, and they do not collect any new karmas. This state of true freedom is called Moksha. Siddhas are experiencing unobstructed bliss (eternal happiness). They have complete knowledge and perception and infinite power. They are formless and have no passions and therefore are free from all temptations.
3. ACHARYAS
The message of Jina, Lord Mahävira the last Tirthankara, is carried on by the Ächäryas. They are our spiritual leaders. The responsibility of the spiritual welfare, but not social or economical welfare of the entire Jain Sangh, rests on the shoulders of the Ächäryas. Before reaching this state, one has to do in-depth study and achieve mastery of the Jain scriptures (Ägams). In addition to acquiring a high level of spiritual excellence, they have the ability to lead the monks and nuns. They know various languages with a sound knowledge of other philosophies and religions of the area and the world.
4. UPADHYAYAS
This title is given to those Sädhus who have acquired a special knowledge of the Ägams and philosophical systems. They teach Jain scriptures to sädhus and sädhvis.
5. SADHUS AND SADHVIS
When householders become detached from the worldly aspects of life and get the desire for spiritual uplift(and not worldly uplift), they give up their worldly lives and become sädhus (monk) or sädhvis (nun). A male person is called sädhu, and a female person is called sädhvi. Before becoming sädhus or sädhvis, a lay person must observe sädhus orto understand their life style and do religious studies. When they feel confident that they will be able to live the life of a monk or a nun, then they inform the Ächärya that they are ready to become sadhu or sadhvi. If the Ächärya is convinced that they are ready and are capable of following the vows of sadhu or sadhvi, then he gives them Deekshä. Deeksha is initiation ceremony when a householders changes to a monk or a nun. At the time of Deekshä, the sadhu or sadhvi voluntarily accepts to obey following five major vows for the rest of his/her life:
1. Commitment of Total Ahimsä (non-violence)-not to commit any type of violence.
2. Commitment of Total Satya (truth)-not to indulge in any type of lie or falsehood.
3. Commitment of Total Asteya (non-stealing)-not to take anything unless it is given.
4. Commitment of Total Brahmacharya (celibacy)-not to indulge in any sensual. activities
5. Commitment of Total Aparigraha (non-possessiveness)-not to acquire more than what is needed to maintain day to day life.
Some other things they observe are:
They do not accept the food cooked specially for them; They do not eat before sunrise or after sunset; They drink boiled water; They walk bare footed and do not sit in a car, train, airplane or any other vehicle; They do not stay in one place for a longer time; They do not touch any person of the opposite sex even the children of opposite sex; They do not get involved in social or society affairs; Some monks wear no clothes while others wear white clothes; All nuns wear white clothes; They offer spiritual guidance to us, Self-discipline and purity is the part of their daily life. That is why Jain monks and nuns are unique. Their activities are directed towards the uplift of their souls to Paramätman (the state of liberation).
Digambars and Sthanakvasis only use the first five lines, and in inscriptions inside the Orissa Hathi Guffa caves, the order is different from what is given above.